मैं स्वीकार करती हूँ .........
हम तो सूखे हुए ठूंठ जैसे वो पेड़ हैं
जिसके पास परिंदों को बैठाने के लिए टहनियाँ भी नहीं हैं
चाहते थे कभी उस अम्बर को छू लेना ,
कम्बख्त ज़मीन से ही उखड गए
मेरी पहचान अब शायद पहचान नहीं रही ,
तभी तो मुझे पहचानने वाले मुझे पहचानने से कतराते हैं
असफलताओं के कारवाँ कुछ ऐसे गुजरे कि
उन्हीं की धूल में हम अपनी पहचान तलाशते हैं !!
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Thankyou